अगर हम अहिंसा कि बात करते हैं तो सब से पहले जो नाम हमारे जेहन मे आता है वह है भगवान महावीर । वे अहिंसा के अवतार ही नही थे वे स्वयं अहिंसा थे । अहिंसा और महावीर मे सदृश्य था। महावीर से प्रथक अहिंसा का अर्थ ही खो गया है । पर वास्तव मे अहिंसा या हिंसा क्या है । क्या किसी को मारना या कष्ट देना ही हिंसा है
किसी को मारना या कष्ट देना मात्र ही हिंसा नही हिंसा के असंख्य रूप हमारे जीवन मे इस प्रकार घुल गए है कि उन्हें पहचानना भी कठिन हो गया है । हिंसा के सुक्षम रूपों का वर्णन यहाँ दिया गया है।
किसी जीव को सताना हिंसा है ।
झूठ बोलना कटु बोलना हिंसा है ।
दंभ करना धोखा देना हिंसा है ।
किसी कि चुगली करना हिंसा है ।
किसी का बुरा चाहना हिंसा है ।
दुःख होने पर घबराना हिंसा है ।
सुख मे फूल कर अकड़ना हिंसा है ।
किसी कि निंदा और बुराई करना हिंसा है ।
गाली देना हिंसा है
अपनी बडाई हाकना हिंसा है ।
किसी पर कलंक लगाना हिंसा है
झिद्दकना , भद्दा मजाक करना हिंसा है ।
किसी पर अन्याय होते देख चुप रहना हिंसा है ।
शक्ति होते हुए भी अन्याय को न रोकना हिंसा है ।
आलस्य और प्रमाद मे निष्क्रिय पड़े रहना हिंसा है ।
अवसर आने पर भी सत्कर्म से जी चुराना हिंसा है ।
बिना बाटेअकेले खाना हिंसा है ।
इन्द्रियों का गुलाम रहना हिंसा है ।
देबे हुए कलह को उखाड़ना हिंसा है ।
किसी कि गुप्त बात को प्रकट करना हिंसा है ।
किसी को नीच -अछूत समझना हिंसा है ।
शक्ति होते हुए भी सेवा न करना हिंसा है ।
बडों कि विनय भक्ति न करना हिंसा है ।
छोटों से स्नेह , सद्भाव न रखना हिंसा है ।
ठीक समय पर अपना फ़र्ज़ अदा न करना हिंसा है ।
सच्ची बात को किसी बुरे संकल्प से छिपाना हिंसा है ।
Thursday, April 17, 2008
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